फ़ूल तन्हा शाख पर मुरझा गया
उफ़ प्रदुषण खेल क्या दिखला गया
जिसको देखा खांसते आया नज़र
ये धुंआ बीमारियाँ फैला गया
वो तो था नेता उसे तो हक़ ही था
मसअले सुलझे हुए उलझा गया
क्या करूँ पैसे की मारामारी है
बे-वजह मैं आप पर झल्ला गया
नींद से जागी हैं सरकारें तभी
जब सदन में बात का हल्ला गया
नूर चेहरे का गया इक पल में तब
सेठ के हाथों से जब गल्ला गया
ज़िन्दगी मेरी मुझे ले चल कहीं
मैं यहां रहके तो अब पगला गया
सिया
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