किसी अदू से भी ले न पाई किसी तरह इंतेक़ाम साहिब
मेरी शराफ़त ने सब्र का फिर मुझे पिलाया है जाम साहिब
जो आग दिल में सुलग रही है वो मेरे लहजे में ढल ना जाये
ये ज़िन्दगी बन गयी हैं धोका, हुआ हैं जीना हराम साहिब
ये बेरुखी की जो इन्तेहाँ है, तेरी खमोशी का सिलसिला है
मैं जाँ से आजिज़ सी आ गयी हूँ ये ज़िन्दगी है तमाम साहिब
वहीं कनखियों से देखकर भी न देख पाने का ढोंग करना
इसी अदा ने बना लिया है मुझे भी उसका गुलाम साहिब
मैं अपने जीवन की सारी खुशियाँ निसार करती उसी पे लेकिन
कभी वो मुझपे भी गौर करता,कहीं पे भी एक शाम साहिब
मैं दश्ते हिजरत में जाने कब से, भटक रही हूँ उसी तलब में
सिया अभी तक मिला नहीं है मुझे मोहब्बत का जाम साहिब .........................................
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