Tuesday 14 April 2015

उसके लफ़्ज़ों का मेरे दिल से गुज़र पूछो मत


कैसे उजड़ा है मोहब्बत का नगर पूछो मत
उसके लफ़्ज़ों का मेरे दिल से गुज़र पूछो मत

कैसे अजदाद की  तहज़ीब हुई हैं तक़सीम 
कैसे काटा गया आँगन का शजर मत पूछो 

ख्वाब सब उनके  इशारों पे निछावर कर के 
मैंने क्यों काट दिए अपने ही पर पूछो मत

मुफलिसी मुझको दिलासे तो दिलाती है मगर 
कैसे कटते है मेरे शामो सहर पूछो मत

 देखना हैं तो ये ताऱीख  उठा कर देखो 
किसने छीना मेरे हाथों का हुनर पूछो मत


मुश्किलें मुझसे गले मिल के चली जाती हैं 
कितना उलझा रहा जीवन का सफर पूछो मत

पर्देदारी के हुनर से हैं बख़ूबी वाक़िफ़ 
हमको मालूम है सब हमसे मगर पूछो मत 

कैसे तन्हाई टपकती है मेरे कमरे में 
काटता रहता है हर वक़्त ये घर पूछो मत

दिल ए हस्सास में चुपके से चला आता है 
हाय इस दर्द का अंदाज़ ए हुनर पूछो मत

रेंगती ज़ीस्त की सच्चाई यही है आखिर 
जाने कब ख़त्म हो साँसो का सफ़र पूछो मत

पागलों जैसे जो आसार सिया है मेरे 
कौन से ग़म का हुआ दिल पे असर पूछो मत

No comments:

Post a Comment