ख़ुद की हस्ती गिरां गुज़रती है
ज़िंदगी जब मज़ाक करती है
रास्ते कब तमाम होते हैं
ज़िंदगी तू कहाँ ठहरती है
ये मोहब्बत भी है कली की तरह
ख़ुद ही खिलती है खुद बिखरती है
रक़्स करता है कोई ज़ेहन पे जब
शायरी तब कहीं उतरती है
ऐसी रानाई किसने मानी जो
आईना देख कर सँवरती हैं
रौब इतना हैं उसके चेहरे पर
आँख उठते हुए भी डरती है
मुझमें ख़ामी जो ढूँढता है फ़क़त
उसको ख़ूबी मिरी अखरती है।
ज़िन्दगी हैं अजीब सी कश्ती
डूबती है न जो उभरती है
उस जुबां का सिया भरोसा क्या
अपने वादे से जो मुकरती है
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