Sunday 7 May 2017

वो अब नहीं है तो महफ़िल में कैसा मातम है

वो जिससे  जीते जी पूछा  नहीं की क्या ग़म है   
वो अब नहीं है तो महफ़िल में कैसा  मातम है 

हमारी नींद भी हमको सुक़ून दे कैसे 
हमारी आँखों में आया जो  ख्वाब भी नम है 

न पूछो मुझसे मेरी तुम  उदासियों का सबब  
जो खा रहा है मुझे  रात दिन  वो क्या  ग़म है 

मैं अपने आप से तो मुतमइन नहीं लेकिन 
 तुम्हारी ज़ात पे मेरा यक़ीन-ए-मोहकम  है 

कहूँ मैं कैसे मेरी उम्र तुझको लग जाए 
मैं जानती हूँ मेरी ज़िंदगी बहुत कम है 

नहीं उजाले मुक़द्दर में है सिया तेरे 
जलाया धूप ने जिसको तू ऐसी शबनम है 

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